जानिये ,बकरीद जुड़ी कहानी और परम्परा 

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बकरीद इस्लाम धर्म में सबसे अधिक मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक हैं. एक जश्न की तरह इस त्यौहार को मनाने की रीत हैं. इस मौके पर बाजारों में बाजारी बढ़ जाती हैं. ना ना प्रकार की वस्तुओं के साथ मुस्लिम जश्न मनाते हैं. लेकिन इस सबसे बढ़कर बकरीद का दिन कुर्बानी के लिए याद रखा जाता हैं. इस दिन इस्लाम से जुड़ा हर शख्स खुदा के सामने सबसे करीबी को कुर्बान करता है, इसे ईद-उल-जुहा (Eid al-Adha) के नाम से जाना जाता हैं।

इस्लाम में बकरीद की तारीख 
यह कुर्बानी का त्यौहार रमजान के दो महीने बाद आता हैं , इसमें कुर्बानी का महत्व बताया गया हैं। इस्लामिक कैलंडर के अनुसार इसकी शुरुआत 10 धू-अल-हिज्जाह से और खत्म 13 धू-अल-हिज्जाह को होता है। इस प्रकार यह इस्लामिक कैलंडर के बारहवें माह के दसवें दिन मनाया जाता है। 

बकरीद के मायने 
बकरीद का दिन फर्ज-ए-कुर्बान का दिन होता हैं। बकरीद के दिन बकरे की कुर्बानी दी जाती हैं। मुस्लिम समाज  बकरे को पाल कर बड़ा होने पर बकरीद के दिन अल्लाह के लिए कुर्बान कर दिया जाता हैं जिसे फर्ज-ए-कुर्बान कहा जाता हैं।


यूँ शुरू हुआ परम्परा  

इस्लामिक त्यौहार के पीछे एक एतिहासिक तथ्य हैं। खुदा ने हजरत मुहम्मद साहब का इम्तिहान लेने के लिए उन्हें यह आदेश दिया कि वे तब ही प्रसन्न होंगे, जब हज़रत अपने बेइंतहा अज़ीज़ को अल्लाह के सामने कुर्बान करेंगे।  तब हज़रत इब्राहीम ने कुछ देर सोच कर निर्णय लिया और अपने अज़ीज़ को कुर्बान करने का तय किया। सबने यह जानना चाहा कि वो क्या चीज़ हैं जो हज़रत इब्राहीम को सबसे चहेती हैं जिसे वो आज कुर्बान करने वाले हैं।  तब उन्हें पता चला कि वो अनमोल चीज़ उनका बेटा हजरत इस्माइल हैं जिसे वो आज अल्लाह के लिए कुर्बान करने जा रहे हैं। इस कुर्बानी को अदा करना इसलिए हज़रत इब्राहीम ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और अपने बेटे की कुर्बानी दी। जब उन्होंने आँखों पर से पट्टी हटाई तब अपने बेटे की जगह अज़ीज़ बकरे की कुर्बानी अल्लाह ने कुबूल की।तब ही से कुर्बानी का यह मंज़र चला आ रहा हैं जिसे बकरीद ईद-उल-जुहा कहते है। 

बदलता बकरीद 
इस दिन बकरे के अलावा बकरी, भैंस और ऊंट की कुर्बानी दी जाती हैं। कुर्बान किया जाने वाला जानवर देख परख कर पाला जाता हैं अर्थात उसके सारे अंग सही सलामत होना जरुरी हैं। वह बीमार नही होना चाहिये। कुर्बान करने के बाद उसके मांस का एक तिहाई हिस्सा खुदा को, एक तिहाई घर वालो एवम दोस्तों को और एक तिहाई गरीबों में दे दिया जाता हैं। लेकिन इस दौर में त्यौहारों के रूप बदलते जा रहे हैं और ये कहीं न कहीं दिखावे की तरफ रुख करते नज़र आ रहे हैं। 


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