” ब्रह्म तेज ” अभियान में ” ब्रह्म सेना ” सवा लाख द्विजों को पुनः धारण कराएगा जनेऊ

 ” ब्रह्म तेज ” अभियान में ” ब्रह्म सेना ” सवा लाख द्विजों को पुनः धारण कराएगा जनेऊ


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–   संस्कार को बनाये रखने हेतु ब्रह्म सेना की एक पहल 
–   विस्मृत होती परंपरा को पुनः स्थापित करने का एक गंभीर प्रयास
–  सनातन धर्म मे 16 संस्कारों में सबसे मुख्य  है ‘उपनयन संस्कार

बदलते परिवेश में लोग अपने संस्कारों को छोड़ते या फिर भूलते हुए अनावश्यक परेशानियों के भवंर जाल में स्वयं तथा अपने स्वजनों को धकेलते जा रहे हैं जिनमें एक महत्वपूर्ण विषय जनेऊ धारण का है।सनातन धर्म के अनुयायी ब्रह्मसूत्र ( जनेऊ ) को धारण भूलते जा रहे है जिसके अनेक कारणों में शुद्धता, उपलब्धता, पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण और इस सन्दर्भ में ज्ञान का अभाव होना भी है।  ब्राम्हणों के हित में कार्य करने वाली ” ब्रह्म सेना ” “ब्राह्म तेज ” अभियान के तहत सवा लाख विप्रो को पुनः जनेऊ धारण कराने के विशाल आयोजन की शुरुआत कर रही है। इस आयोजन के अंतर्गत आगामी छ महीने में काशी और इसके आस पास ले जिलों के ब्राम्हणों में ब्रह्म चेतना का जागरण कराते हुए जनेऊ धारण कराया जाएगा जो भूलते परंपरा को पुनःस्थापित करने का एक जीवंत प्रयास है। 

आयोजन का शुभारंभ
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार श्रावणी के दिन विप्र गण नदी तट पर अपने शुद्धिकरण के बाद देव ऋषि पितृ तर्पण और पूजन के दौरान विधि पूर्वक पूजित जनेऊ को वर्ष पर्यन्त धारण करते हैं। अतः “ब्रह्म तेज ” अभियान की शुरुआत ब्राम्हणों के लिए सबसे महत्वपूर्ण पर्व श्रावणी ( 22 अगस्त रविवार ) से किया जा रहा है। श्रावणी के शुभ दिन ऋषि पूजन कर जनेऊ के शुद्धिकरण के बाद 101 स्वयं सेवक विप्र समूहों द्वारा यथा सम्भव प्रत्येक संबंधित घरों में जाकर ब्रह्मसूत्र (जनेऊ) धारण कराया जाएगा। संपर्क के दौरान विप्रों को एक पैकेट दिया जायेगा जिसमें किसी कारणों से अशुद्ध होने पर पुनः धारण करने के लिए दो जनेऊ तथा साथ ही एक जनेऊ के सामान्य ज्ञान से संबंधित एक साहित्य भी होगा।  साहित्य में जनेऊ से जुड़ीं सभी जानकारियां जैसे जनेऊ की संरचना, धारण करने की वजह, धारण करने का मन्त्र , अशुद्ध होने की स्थिति, ब्रह्म गाँठ की जानकारी संग जनेऊ के वैज्ञानिक फायदे होगी। 

क्या है  यज्ञोपवीत
सनातन धर्म में  16 संस्कारों में से ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत यज्ञोपवीत / जनेऊ पहनी जाती है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है “सन्निकट ले जाना” और उपनयन संस्कार का अर्थ है–“ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जा। माना जाता है कि ऐसा करने से व्यक्ति ब्रह्मत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। धर्म ग्रंथो के अनुसार मनुष्य यज्ञोपवीत के पश्चात् ही वह देवकर्म, यज्ञकर्म, पितृकर्म सहित पूजा-पाठ का अधिकारी होता है। इसे धारण करने के बाद व्यक्ति को शक्ति के साथ ही शुद्ध चरित्र मिलता है और वह कर्तव्य परायणता के बोध से विभोर हो जाता है। पौरागिण ग्रंथों में तपस्वियों, सप्त ऋषि तथा देवगणों ने कहा है कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की शक्ति है। ब्राह्मणों का यह आभूषण स्वर्ण या मोतियों का बना हुआ नहीं है, ना ही यह मोतियों से बना हुआ है। साधारण कपास के धागे से बना हुए इस पवित्र यज्ञोपवीत के माध्यम से ही देवता, ऋषियों और पितृ का ऋण चुकाया जाता है।   



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