जरई की परंपरा – समाप्त होती पारम्परिक परंपरा   

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कृष्ण पक्ष तृतीया को संपूर्ण पूर्वी उत्तर भारत में कजरी तीज का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर सुहागिनें कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। नागपंचमी के दिन जौ को इस दिन महिलाएं नदी, तालाब आदि से मिट्टी लाकर और उसमें जौ के दाने बोती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। धान की जरई को गंगा में डुबोया और फिर  कान में खोंसा कर बहनें उनकी सुख समृद्धि की कामना करती हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियां अपने भाई और बुजुर्गो के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को जरई खोंसना कहते हैं। कजरी तीज का त्यौहार रक्षा बंधन के तीन दिन बाद आज मनाते है । इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को श्रतजगाश् का त्योहार होता है। महिलाएं रात भर कजरी खेलती हैं। कजरी खेलना और कजरी गाना, दोनों अलग चीजें हैं।



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