
मस्तक पर स्वर्ण मुकुट, हाथों में शंख-चक्र व अमृत कलश और रजत सिंहासन पर विराजमान आरोग्य सुख प्रदाता धनवन्तरि भगवान। काशी में एकमात्र मंदिर, जिसका कपाट वर्ष में एक बार धनतेरस को खुलता और आयुव्रेद के आराध्य से स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए भक्तों का भीड़ उमड़ता।
300 वर्ष से ज्यादा प्राचीन मंदिर
धनवन्तरि उत्सव की शुरुआत काशी नगरी से हुई थी। तीन सौ बरस से ज्यादा प्राचीन भगवान धनवंतरि का मंदिर सुड़िया-बुलानाला में स्थित धनवन्तरि निवास से । इस ड्योढ़ी पर हाजिरी मात्र से भक्तों को रोग-व्याधि से मुक्ति और सुख-समृद्धि व यश की प्राप्ति होती है।
वर्ष में 5 दिन तक खुलता कपाट
मंदिर का कपाट वर्ष में एक बार धनतेरस के दिन खुलता है और पांच दिन यानि भइया दूज तक दर्शन-पूजन के निमित्त खुला रहता है। धनतेरस पर दर्शन करना शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।
अष्ठधातु की प्रतिमा
मंदिर के गर्भगृह में रजत सिंहासन पर सुशोभित अष्ठधातु की प्रतिमा भगवान धनवन्तरि की है। माथे पर स्वर्ण मुकुट और देह पर पीताम्बरी धारण किए हुए देव विग्रह की छवि निराली है।
उत्सव की परम्परा
वैद्यराज पं. कन्हैया लाल ने पहली बार धनवन्तरि उत्सव की शुरुआत की थी। यह धार्मिंक मान्यता, परम्परा और अलौकिकता आज भी अटूट है। पं. कन्हैया लाल जी के बाद वैद्यराज पं. गिरधारी महाराज, पं. अमृत शास्त्री, पं. त्र्यम्बक शास्त्री, पं. बाबू नन्दन, पं. रघुनंदन तथा पं. रामशंकर अपने पुरखों की परम्परा का अनुसरण करते रहे हैं। परिवार के सदस्यों की माने तो देश में यह एकमात्र मंदिर है जहां धनवंतरि भगवान विराजमान हैं। धन्वन्तरि उत्सव का आरंभ भी यहीं से हुआ था।
आराध्य का पूजन
इस बार भी धनतेरस के दिन भगवान धनवन्तरि का श्रृंगार मध्याह्न 12 बजे से शुरू हुआ । मंदिर का कपाट सायं 5 बजे खुलता है । इसके पश्चात श्रद्धालुओं के दर्शन-पूजन का क्रम शुरू होगा, जो कि रात तक चलता है ।
समुद्र मंथन से प्रकट हुए भगवान
देवासुर संग्राम में जब समुद्र मंथन हुआ था, उस समय कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि यानि धनतेरस पर भगवान धनवन्तरि अमृत कलश लिए मध्याह्न बेला में प्रकट हुए थे। उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, जोक व अमृत कलश शोभायमान रहा।
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