अद्वितीय प्रतिभा के धनी पण्डित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था। पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पूर्वज मालवा प्रान्त के निवासी थे। अतएव इन्हें मालवीय कहा जाता था। मदन मोहन मालवीय को धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। मदन मोहन मालवीय ने महज 25 वर्ष की आयु में ही 1886 में भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में भाग लिया और उसे संबोधित किया। बाद में वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वे एक महान देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, विधिवेत्ता, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान, शिक्षाविद, पत्रकार और प्रखर वक्ता थे।
साहित्य से रुचि
एक पत्रकार के रूप में उन्होंने वर्ष 1907 में एक हिंदी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ की शुरुआत की, जिसे वर्ष 1915 में दैनिक बना दिया गया। इसके अलावा उन्होंने वर्ष 1910 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘मर्यादा’ भी शुरू की थी। उन्होंने वर्ष 1909 में एक अंग्रेज़ी दैनिक अखबार ‘लीडर’ भी शुरू किया था। मालवीय जी हिंदी साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान’ और ‘इंडियन यूनियन’ के संपादक भी थे। वे कई वर्ष तक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के निदेशक मंडल के अध्यक्ष भी रहे।
मालवीय जी केवल भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बनकर ही नहीं रहे बल्कि हिंदी भाषा को राजभाषा का सम्मान, समाज सुधार, पत्रकारिता, शैक्षणिक संप्रभुता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री गणेश करने वाले अग्रदूत थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सपने “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल” को साकार करने का भागीरथ कार्य मालवीय जी ने ही किया। वर्ष 1937-38 में मालवीय जी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था।
नई परम्परा का सृजन
विश्वविद्यालय के इतिहास में अभी तक दीक्षांत भाषण अंग्रेजी में ही दिए जाने की परंपरा रही। लेकिन मालवीय जी ने उस परंपरा को तोड़, हिंदी में भाषण देकर देशभक्ति का अनूठा उदाहरण पेश किया। भाषण देते समय ‘सर स्पीक इन इंगलिश, वी कांट फॉलो योर हिंदी’ जैसे ही श्रोताओं के बीच से यह आवाज गूंजी तो पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने जवाब दिया “महाशय,मुझे भी अंग्रेजी बोलना आता है। शायद हिंदी की अपेक्षा मैं अंग्रेजी में अपनी बात अधिक अच्छे ढंग से कह सकता हूँ। लेकिन मैं एक पुरानी अस्वस्थ परंपरा को तोड़ना चाहता हूँ। उनकी हिंदी के प्रति संवदेनशीलता और संघर्ष से ज्ञात होता है कि आजादी के बाद कोई दूसरा महामना नहीं हुआ, जो हिंदी को देश में बाध्यकारी भाषा बना दे। महात्मा गांधी ने पंडित मदन मोहन मालवीय को 'महामना' की उपाधि दी थी। भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. एस राधाकृष्णन ने मालवीय जी को 'कर्मयोगी' का दर्जा दिया था। मालवीय जी ने भारतीय संस्कृति की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वर्ष 1916 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी।
शिक्षा से संस्कृति और संस्कार
महामना मालवीय जी का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की उन्नति का आधार वहाँ की शिक्षा व्यवस्था होती है। शिक्षा संस्कृति की संवाहक होती है। संस्कृति संस्कार से बनती है और सभ्यता नागरिकता से। हम भारतीय है ये हमारी नागरिकता है। हमारी सभ्यता ही भारतीय होने का परिचायक है। हम शिक्षित हैं, ये हमारा संस्कार है। शिक्षा संस्कार का आधार है। हम कह सकते है कि शिक्षा राष्ट्र की उन्नति का आधार है।
शिक्षा संग सामाजिक सोच भी
मालवीय जी ने शैक्षणिक उन्नति के साथ साथ समाज में फैली बुराइयों को भी समाप्त किया। सामाजिक बुराइयों में अहम् था गिरमिटिया मजदूरी प्रथा। मालवीय जी ने ‘गिरमिटिया मज़दूरी’ प्रथा को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभाई। ‘गिरमिटिया मज़दूरी’ प्रथा, बंधुआ मज़दूरी प्रथा का ही एक रूप है, जिसे वर्ष 1833 ई.में दास प्रथा के उन्मूलन के बाद स्थापित किया गया था। ‘गिरमिटिया मज़दूरों’ को वेस्टइंडीज़, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिश कालोनियों में चीनी, कपास तथा चाय बागानों और रेल निर्माण परियोजनाओं में कार्य करने के लिये भर्ती किया जाता था।
जीवन प्रवाह संग गंगा भी आवश्यक
हरिद्वार के भीमगोड़ा में गंगा के प्रवाह को प्रभावित करने वाली ब्रिटिश सरकार की नीतियों से आशंकित मालवीय जी ने वर्ष 1905 ई. में गंगा महासभा की स्थापना की थी। वे एक सफल समाज सुधारक और नीति निर्माता थे, जिन्होंने 11 वर्ष (1909-1920) तक 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल' के सदस्य के रूप में कार्य किया। उन्होंने 'सत्यमेव जयते' शब्द को लोकप्रिय बनाया। हालाँकि यह वाक्यांश मूल रूप से ‘मुण्डकोपनिषद’ से है। अब यह शब्द भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है।
समुदाय से बाहर
मालवीय जी के प्रयासों के कारण ही देवनागरी (हिंदी की लिपी) को ब्रिटिश-भारतीय अदालतों में पेश किया गया था। जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर अपने विचार व्यक्त करने के लिये उन्हें ब्राह्मण समुदाय से बाहर कर दिया गया था। इससे स्पष्ट होता है कि मालवीय जी जातिगत व्यवस्था से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की सोचते थे। मालवीय जी ने साबित किया कि व्यक्ति को कर्म से ब्राह्मण होना चाहिए।
सामाजिक समरसता के संवाहक
उन्होंने वर्ष 1915 में हिंदू महासभा की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। मदन मोहन मालवीय के अनुसार राष्ट्रीयता और धार्मिक सहिष्णुता में कोई विरोध नहीं है। 12 नवम्बर, 1946 ई. को महामना मालवीय जी का देहावसान हो गया था। भारत सरकार ने 25 दिसम्बर 2014 को उनके 153वें जन्मदिन पर भारत रत्न से नवाजे जाने की घोषणा की थी। अतएव पंडित मदन मोहन मालवीय को 31 मार्च 2015 को भारत रत्न (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया। महामना मालवीय जी का जीवन करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणादायक है। भारत सदा उनका ऋणी रहेगा।
लेखन- प्रशान्त त्रिपाठी,अधिवक्ता

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