
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग बेअसर
मुख्य मुकाबले में दिख रही सपा-भाजपा
मुकाबले को त्रिकोणीय नहीं बना पा रही बसपा
22% दलित आबादी पर हर दल की निगाहें
कांशीराम के सिद्धांतों से विपरीत जा रही बसपा
– राजनीतिक विश्लेषक वरिष्ठ पत्रकार हरिमोहन विश्वकर्मा की रिपोर्ट
लखनऊ। उप्र विधानसभा चुनावों में दलित वोटर्स किंकर्तव्यविमूढ़ हैं क्योंकि दलितों की पार्टी समझी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती इन चुनावों में हाशिए पर खड़ी नजर आ रही है। मायावती की पार्टी अकेले चुनावी समर में खड़ी तो है लेकिन मुख्य मुकाबला समाजवादी और सत्तारूढ़ भाजपा के बीच ही माना जा रहा है। बहुजन समाज पार्टी उस रंग में भी नजर नहीं आ रही जो इस मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की ओर लक्षित लग रहा हो। सोशल इंजीनियरिंग का जिम्मा पार्टी महासचिव सतीश मिश्रा ने संभाल रखा है लेकिन दलित वोट उनसे जुड़ पाएगा, ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में समाजवादी पार्टी और भाजपा की निगाह भी दलितों पर है नतीजतन जो दलित एक समय मायावती की बसपा के सेवक थे, वे भाजपा और अब समाजवादी पार्टी के दर पर नतमस्तक हो रहे हैं। इनमें ज्यादातर अति पिछड़े और दलित हैं। कमोबेश इसे ही स्वार्थपरक अवसरवादी राजनीति कहते हैं। भाजपा दलित नेताओं को यह समझा रही है कि मायावती ने अंबेडकर के जातिविहीन सामाजिक दर्शन को पूंजी और सामंती वैभव के भोग का पर्याय मान लिया है। ऐसे में बहिनजी का दलित उद्धार का नारा खोखला है। अंबेडकर का अंतिम लक्ष्य जाति विहीन समाज की स्थापना थी। जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती। लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता सवर्ण रहे हों या अवर्ण जाति, वर्ग भेद को ही आजादी के समय से सत्तारूढ़ होने का मुख्य हथियार बनाते रहे हैं।
आज मायावती को सबसे ज्यादा किसी तात्विक मोह ने कमजोर किया है तो वह है, धन और सत्ता लोलुपता। जबकि अंबेडकर इन आकर्षणों से सर्वथा निर्लिप्त थे।
दलित नेता व अधिकारी भी अधिकार संपन्न होने के बाद उन्हीं कमजोरियों की गिरफ्त में आते गए। इसीलिए अगड़े-पिछड़ों का खेल और दल-बदल की महिमा मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कुटिल मंशा से आगे नहीं बढ़ पाई। यही वजह रही कि उत्तर-प्रदेश जैसे जटिल, धार्मिक व सामाजिक संरचना वाले राज्य में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती आज चुनावी सरगर्मियों के बीच मौन व उदासीन हैं। यह उनकी राजनीतिक निष्क्रियता की घोषणा तो है ही, कालांतर में नेपथ्य में चले जाने का संकेत भी है।
बहुजन समाज पार्टी का वजूद खड़ा करने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक डीएस-4 के माध्यम से दलित हितों के लिए संघर्ष किया था। इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा स्थापित करते समय बसपा की बुनियाद पड़ी और समूचे हिंदी क्षेत्र में बसपा के विस्तार की प्रक्रिया आरंभ हुई। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने का चुंबकीय तेज था। फलस्वरूप बसपा एक मजबूत दलित संगठन के रूप में स्थापित हुई और उत्तर-प्रदेश में चार बार सरकार बनाई। अन्य प्रदेशों में बसपा के विधायक दल-बदल के खेल में भागीदार बनकर सरकार बनाने में सहायक बने। किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होने पर समर्थन का टेका लगाने का काम भी किया। केंद्र में मायावती यही भूमिका अभिनीत करके राज्यसभा सांसद बनती रहीं। इन साधनों के साध्य के लिए मायावती ने सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) जैसे बेमेल प्रयोगों का भी सहारा लिया। इन प्रयोगों का दायित्व किसी दलित को सौंपने की बजाय, सनातनी ब्राह्मण सतीष मिश्रा के सुपुर्द किए। मसलन सत्ता प्राप्ति के लिए जातीय समीकरण बिठाने में मायावती पीछे नहीं रहीं। कर्मचारी राजनीति के माध्यम से जातिगत संगठन बसपा की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले कांशीराम ने अंबेडकर के दर्शन को दरकिनार कर कहा कि ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो।
हालांकि मायावती उत्तर-प्रदेश में दलितों के 22 प्रतिशत वोट 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में स्थिर रखने में सफल रही हैं। बावजूद इसके 2014 में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उन्हें लगभग इतना ही वोट मिला था। इसी वोट की माया रही कि अगड़े और पिछड़े थैलियां लेकर उनसे बसपा का टिकट लेने की कतार में लगे रहे। किंतु अब यह मिथक टूटने को आतुर दिखाई दे रहा है। इसीलिए दलित हैरान है कि 2022 में किसका चुनाव करें।
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