रैदास जयंती : रैदास की ‘कठौती’ अंतर्जगत की यात्रा है …

रैदास जयंती : रैदास की ‘कठौती’ अंतर्जगत की यात्रा है …



-सलिल पांडेय

मध्यकाल में मुगल आक्रमण के दौरान सनातन सँस्कृति में पाखंड एवं आडम्बर की बहुलता से भारतीय समाज में आपसी वैमनस्यता का भाव भी प्रबल रूप से छाया था । इस दौरान सन्त कवियों ने पाखंड तथा आडम्बर के खिलाफ एक वैचारिक आंदोलन शुरू किया । इन्हीं सन्त कवियों में कबीरदास के गुरुभाई रैदासजी भी शामिल थे । सनातन संस्कृति रुग्ण हो रही थी तथा जातीय-विभेद और छुआछूत की भावना कदम-कदम पर दिख रही थी। जबकि सनातन सँस्कृति का उद्घोष ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहिं कपट छल छिद्र न भावा’ है । इसका सन्देश धर्मग्रन्थों में दिया गया है। इसी भावना को हृष्ट-पुष्ट करने के लिए छद्म तथा कपट रूपी आवरण से दूरी बनाकर तथा आंतरिक शुचिता की विभूति लगाकर देवाधिदेव महादेव जिस काशी में आकर विराजते हैं, उसी काशी में माघ महीने की पूर्णिमा तिथि को सन्त कवि रैदासजी भी जन्म नहीं बल्कि अवतार लेते हैं ।

जूते के कारोबार का आशय चरण की रक्षा
रैदास का चमड़े के कारोबार से जुड़ना भी चमड़े से युक्त शरीर में निर्मलता के प्रवाह का द्योतक है । वे चरण में पहनने वाले जूते की सिलाई करते हैं । देखा जाय तो संवेदना और तरलता की गंगा-नदी भगवान विष्णु के चरण से ही निकली थीं । राजा बलि से तीन पग भूमि लेने के क्रम में दूसरा पैर जब आकाश की ओर गया तो अंतरिक्ष के आघातों से भगवान विष्णु के पांव में घाव से जो द्रव पदार्थ निकला, उसे ब्रह्मा ने अपने कमंडल में भर लिया था । देवी-पुराण में इस कथा का उल्लेख भी है । सृजन, पालन और संहार के त्रिदेवों का स्पर्श के जरिए गंगा को भी ये तीनों गुण स्वतः प्राप्त हो गए।

गंगा का आशीर्वाद
सन्त कवि रैदासजी के लिए एक किंवदंती प्रचलित है कि उन्होंने अपने कठौती में गंगा को प्रकट कर दिया था । तब से ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ की कहावत प्रचलित है । इस कथा के बारे में यह प्रचलित है कि कोई महात्मा जी गंगा स्नान करने जा रहे थे । रास्ते में चरण-पादुका टूट गयी । वे रैदास के पास आए तथा चरण पादुका ठीक करने के लिए बोले । पादुका की मरम्मत करते समय रैदासजी पूछ बैठे कि आप कहां सुबह सुबह जा रहे हैं ? रैदास के इस प्रश्न पर महात्मा जी बोले-‘वे गंगा स्नान के लिए जा रहे हैं ।’ इसके बाद महात्मा जी ने दंभ भरे शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा-‘रैदास, तुम ठहरे निम्न जाति के, तुम गंगास्नान की महत्ता क्या जानो ?’

महात्मा के इस कथन पर कोई प्रतिक्रिया न व्यक्त कर रैदास जी बोले-महात्मा जी, सच कह रहे हैं आप, लेकिन गंगा में जाकर एक पैसा मेरी ओर से भी चढ़ा दीजिएगा । इतना कहकर एक पैसा रैदासजी ने महात्माजी को दे दिया । स्नान के बाद महात्मा जी पहले अपना चढ़ावा गंगा को भेंट किया । इसके बाद जब उन्होंने मां गंगा को रैदासजी का एक पैसा चढ़ाना चाहा तो गंगा प्रकट हुई और हाथ में एक पैसा लेकर अति कीमती एक कंगन दिया और कहा कि इसे रैदासजी को दे देना ।
इस घटना से महात्माजी आश्चर्य में तो पड़ गए लेकिन उन्होंने कंगन रैदास को न देकर इस लालच से तत्कालीन राजा को देना चाहा कि कंगन देखकर राजा और रानी साहिबा दोनों प्रसन्न हो जाएंगी तथा वे राज्य में सम्मानित होंगे तथा ‘राजकीयमहात्मा’ हो जाएंगे । लेकिन हो गया उल्टा । कंगन देखकर रानी ने इसी तरह के दूसरे कंगन लाने की जिद की । राज्य का जौहरी भी जब इतना शानदार कंगन नहीं बना पाया तो उन्हें राजा के समक्ष सच बोलना पड़ा । राजा ने महात्माजी से कहा कि यदि बात झूठी हुई तो उन्हें प्राणदण्ड दिया जाएगा । राजा अपनी रानी तथा महात्मा के साथ आए तथा सन्त रैदास से इसी तरह के कंगन मां गंगा से मांगने के लिए कहा । महात्मा के ऊपर संकट देखकर सन्त रैदास ने पास रखे कठौती में जल भर कर गंगा का स्मरण किया तो उस कठौती से गंगा प्रकट हुई और दूसरा कंगन प्रदान किया ।

रैदास की कठौती और गोस्वामी तुलसीदास का कठौता
इस कथा के निहितार्थ पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि मन रूपी कठौती को जितना निर्मल और छल-छद्म से मुक्त रखा जाता है तभी ईश्वरीय साक्षात्कार हो सकता है । यहां ‘कठौता’ नहीं ‘कठौती’ शब्द का प्रयोग किया गया है । कठौती के जरिए सूक्ष्म आत्मशक्ति को साधने और जागृत करने के लिए अन्तर्जगत की ओर उन्मुख होना है । जबकि वनवास के दौरान श्रीराम का पांव धोने के लिए केवट द्वारा कठौता में पानी भर कर लाने का जिक्र गोस्वामी तुलसीदास ने अयोध्याकांड में किया है । वे लिखते हैं-‘केवट राम रजायसु पावा, पानि कठौता भरि लेइ आवा ।’ तुलसीदास कठौती की जगह कठौते का प्रयोग इसलिए कर रहे है कि सत्य के प्रतीक भगवान श्रीराम अयोध्या रूपी शरीर से वाह्यजगत में सदाचार, शुचिता का भाव स्थापित करने निकले हैं । लिहाजा आंतरिक शुचिता की यह वाह्य यात्रा है । इसके लिए जितना बड़ा साधन और उद्यम हो सके, उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए । कठौती लकड़ी के छोटे जलपात्र को और कठौता बड़े जलपात्र को कहते हैं । दोनों पात्रों के अलग अलग अर्थ और भाव प्रकट होते हैं ।


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