
अंतिम चरण के मतदान से पूर्व ही… आखिर शीर्ष नौकरशाही अखिलेश से मिलने को है क्यों बेताब?
– कम मतदान से भाजपा नेताओं के माथे से छलक रहा पसीना
– अखिलेश 400+ तो योगी 325+ कौन होगा सही सिद्ध
हरिमोहन विश्वकर्मा
लखनऊ। उप्र विधानसभा चुनाव हेतु अब अंतिम चरण शेष रह गया है जो आज संपन्न होगा। आज पूर्वांचल की 54 अहम सीटों पर मतदान सम्पन्न होना है जिसमें प्रधानमंत्री के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी की 8 सीटें भी शामिल हैं। 10 मार्च को वोटों की गिनती होगी जिसके साथ ही लोकसभा निर्वाचन 24 का सेमीफाइनल माने जा रहे 5 राज्यों के चुनाव नतीजे आम हो जाएंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने इन 5 राज्यों में से उप्र का रण जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है क्योंकि संसद में बैठने का रास्ता उप्र से होकर ही जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा आलाकमान और पार्टी के लिए चाणक्य की भूमिका निभाते आ रहे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से लेकर। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने इन चुनावों में अपना सर्वस्व झोंका है। फिर भी दिलचस्प बात यह है कि यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि इस बार उप्र में सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा। उप्र में सीधे मुकाबले में माने जा रहे दोनों दल समाजवादी पार्टी और भाजपा ही पूरे चुनाव के दरम्यान दिखे। एक ओर जहां भाजपा 300+ का नारा लगाती दिखी तो समाजवादी प्रमुख अखिलेश 400+ का राग अलापते रहे। मतदान प्रक्रिया के दौरान यह साफ हुआ है कि मतदाताओं ने पूरे चुनाव में कोई खास उत्साह नहीं दिखाया जबकि चुनाव आयोग से लेकर सरकार और विभिन्न संस्थाओं ने इस बार मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास किए थे, जो लगता है परवान नहीं चढ़े। पूर्वांचल क्षेत्र में छठे चरण में गिरे मतदान औसत ने भाजपा के जिम्मेदारों के माथे पर शिकन ला दी है। पूर्वांचल भी 2017 में भाजपा का गढ़ बनकर उभरा था लेकिन इस बार मामला पेचीदा लग रहा है। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी पूर्वांचल क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी भी पूर्वांचल में है।
इस पूरी कवायद के बीच जो बात शंका भाजपा के विरुद्ध जा रही है वह प्रदेश की शीर्ष आईएएस और आईपीएस लाबी की गतिविधियां हैं। यह लाबी चुनावी हवा मापने का गारंटेड पैमाना मानी जाती है और पिछले पिछले एक सप्ताह में, खासकर छठे चरण के मतदान के बाद अनेक शीर्ष अफसर अखिलेश यादव से रात के अंधेरे में गुपचुप-गुपचुप मिल रहे हैं, मिल चुके हैं। ऐसी प्रतिक्रियाएं मिल रहीं हैं कि नतीजे अगर चौंकाने वाले आएं तो इन शीर्ष अफसरों की आने वाली सरकार में विश्वसनीयता कम न हो। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि अब तक उप्र में कोई भी सरकार निरंतर दोबारा कुर्सी बरकरार नहीं रख सकी है। हालांकि मुख्यमंत्री योगी ने अपने कार्यकाल के दौरान अनेक मिथ तोड़े हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मुख्यमंत्री यह मिथ भी तोड़ पाएंगे।
अगर राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो एक बात सामने आ रही है कि अखिलेश इस बार अल्पसंख्यकों के वोटों का ध्रुवीकरण कराने में सफल रहे हैं जबकि राष्ट्रवाद और कट्टर हिंदुत्व के नारों को भाजपा वोट में बदलने में उतना सफल नहीं दिख रही है जितना वातावरण था। अखिलेश की सभाओं में आनुपातिक रूप से अपार भीड़ उमड़ी है, हालांकि विपक्ष इसे चुनाव प्रबंधन का हिस्सा बता रहा है लेकिन यह कल्पित भी हो सकता है। भाजपा के लिए एक चिंता बसपा का भी मजबूत होकर उभरना है। हालांकि पार्टी इसे अपने लिए फायदेमंद मानकर चल रही है। इसीलिए अमित शाह ने पांचवें चरण के बाद यह बात कही थी कि बसपा अभी मरी नहीं है। यह संकेत है कि भाजपा चाहती है कि दलित वोट न बिखरे और बसपा से छिटके। लेकिन अगर ऐसा हो भी गया तो मायावती का अब तक का राजनीतिक चरित्र यह आश्वस्त नहीं करता कि वह भाजपा के लिए सीटें बढ़ने पर गारंटी के तौर पर पार्टी के पाले में रहेंगी ही रहेंगी। मायावती पहले भी भाजपा को राजनीतिक धोखा दे चुकीं हैं। भाजपा के नेता आशा कर रहे हैं कि अगर 300 सीटों का आंकड़ा न भी छुआ तो भी 225-250 सीटें कहीं नहीं गईं। ऐसे में सरकार बनने की तो गारंटी है। अगर कुछ ऊंच-नीच होती भी है तो मायावती को पार्टी आंतरिक तौर पर अपना स्वाभाविक सहयोगी मानकर चल रही है जो जरुरत पर उसके साथ खड़ी होगी।
सवाल यह उठता है कि अगर पार्टी इतना सहज और आश्वस्त हैं तो आईएएस, आईपीएस लाबी क्यों आश्वस्त नहीं हैं। रात के अंधेरे में अखिलेश से मिलने की छटपटाहट क्यों है? क्यों अयोध्या में डीएम आवास के संकेतक बोर्ड के साथ, भगवा, हरा और फिर लाल रंगों में परिवर्तित किया गया? अखिलेश यादव के घर का रंगरोगन नये सिरे से क्यों हो रहा है? और तो और लखनऊ स्थित राष्ट्रीय लोकदल के आफिस को नये सिरे से सजाया संवारा जा रहा है। याद रहे कि लोकदल और जयंत चौधरी अखिलेश के इन चुनावों में बड़े सहयोगी हैं।
इन सवालों के जवाब के लिए 10 मार्च का इंतजार तो करना है लेकिन उससे पहले के संकेत सत्तारूढ़ दल के लिए भी आश्वस्त रखने लायक नहीं है। 5 मार्च को भाजपा मुख्यालय में मुख्यमंत्री की अंतिम चरण के पहले बुलाई गई पत्रकार वार्ता भी इस ओर संकेत दे रही है।
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