– वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक हरिमोहन विश्वकर्मा की त्वरित टिप्पणी
– डबल इंजन की सरकार और बुलडोजर बने भाजपा की जीत के प्रतीक
– किसान आंदोलन, बेरोजगारी और कोविड संकट को मुद्दे बनाने में नाकाम रहे अखिलेश
– गठबंधन सहयोगियों के चुनाव में भी चूक गए अखिलेश
– प्रियंका गांधी में जीत से ज्यादा 24 के रैडमैप को दिखी बेताबी
लखनऊ। 5 अहम राज्यों के चुनाव परिणाम गुरुवार को घोषित होने के बाद भारतीय जनता पार्टी में खुशी का माहौल है। एक ओर जहां भाजपा गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही है तो वहीं राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे अहम राज्य उप्र में उसने 35 सालों बाद सत्ता में दोबारा वापसी करने वाली पार्टी का भी रिकार्ड बना दिया है। उप्र देश का वह राज्य है जो हर पार्टी को केंद्र की सत्ता में मददगार रहता आया है। चूंकि देश में 2024 में आमचुनाव होना है इसलिए भाजपा के लिए उप्र का चुनाव जीतना नाक का बाल बन गया था। 2017 में पार्टी ने 303 सीटें जीतकर जो रिकार्ड स्थापित किया था, आशा की जा रही थी कि इस बार विपक्ष खासकर समाजवादी पार्टी से खासी चुनौती मिलने के अनुमानों के मद्देनजर यह माना जा रहा था कि पार्टी का सत्ता में लौटना दुष्कर होगा। इसके पीछे विपक्ष की चुनौती के साथ कोविड काल की त्रास और किसान आंदोलन भी बड़ा फैक्टर था लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कथित डबल इंजन सरकार ने इसे आसानी से कर दिखाया है।
भाजपा की उप्र में इस लगातार दूसरी जीत ने न सिर्फ अनेक मिथक तोड़े हैं बल्कि आम चुनाव और इस साल के आखिर में 9 और राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए बूस्टर डोज माना जा रहा है। इस जीत के पीछे के कारणों का लम्बे समय तक विवेचन चलता रहेगा।
भाजपा ने जिस तरह से जीत हासिल की है उसने विश्लेषकों को थोड़ा हैरान किया है। वजह, है विपक्ष द्वारा पूरे प्रचार अभियान के दौरान योगी सरकार को विकास, कानून व्यवस्था, नारी हिंसा, किसान और कोविड काल में हुई अकाल मौतों पर खड़ा किया जाता रहा। कांग्रेस की ओर से उप्र चुनाव प्रभारी और कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव ने हाथरस कांड और उसके बाद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय टेनी के बेटे द्वारा आंदोलनकारी किसानों पर गाड़ी से कुचलने के मुद्दे पर जो आक्रमण किया, उसने एक बार योगी आदित्यनाथ सरकार को बैकफुट पर ला दिया था लेकिन पार्टी जल्द संभली और स्थितियों को काबू किया। अखिलेश ने भी कानून व्यवस्था सहित रोजी रोटी और बुनियादी विकास योजनाओं को लेकर खूब हमला किया लेकिन। अखिलेश ने मतदाताओं के सामने पुरानी पेंशन लागू करने का पासा फेंका जिससे भाजपा कतराती चली आ रही थी। अखिलेश ने बेरोजगारी, शिक्षक भर्ती और फ्री बिजली का भी मुद्दा उछाला लेकिन कमजोर रणनीति और मजबूत संगठन के अभाव में यह मुद्दे महज कागजी बनकर रह गए। अखिलेश की रणनीतिक कमियां हर चुनाव में सामने आतीं रहीं हैं। इस चुनाव में भी आईं। अखिलेश के पास ऐसे चेहरों का भी अभाव रहा जिन्हें चुनावी रणनीतियां बनाने और उन्हें लागू कराने में महारत हासिल हो। किस मौके पर क्या बोलना है, कितना बोलना है और कैसे बोलना है, इसे बताने वाले भी समाजवादी पार्टी में नहीं थे। यही वजह थी कि अखिलेश का 400+ सीटों का नारा उपहास का बिंदु बनकर रह गया और सपा को इससे फायदे से ज्यादा नुकसान ही हुआ। अखिलेश ने शिवपाल और रामगोपाल यादव जैसे लोगों को चुनावी रणनीतियों से दूर ही रखा, और आजम खां जैसे लोगों के जेल में बंद होने का खामियाजा भी सपा ने भुगता। यहां तक कि पार्टी की पूर्व सांसद और अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव तक को चुनाव प्रचार में निकालने के लिए पांचवें, छ्ठे चरण तक का इंतजार कराया गया। सुनील साजन, संजय लाठर, अनुराग भदौरिया जैसे अंजान चेहरों के बूते अखिलेश चुनाव वैतरणी पार करते, तो यह आश्चर्य ही होता। साफ है जनता ने न तो अखिलेश के मुद्दों को उतनी तवज्जो दी और न उनकी नयी नवेली राजनीतिक टीम को। फिर भी अखिलेश ने 2017 में मिलीं 46 सीटों को तीन गुना से अधिक पहुंचा दिया है। इससे जाहिर होता है कि अगर अखिलेश के पास विश्वसनीय साथी और मजबूत रणनीति होती तो शायद चुनावी तस्वीर कुछ और हो सकती थी। अखिलेश और प्रियंका गांधी के रोड शो और रैलियों में जिस तरह जनसैलाब जुटा, उसे बूथ तक लाने का न तो पार्टियों के पास जज्बा था और न ही रणनीति। यहां तक कि अखिलेश अपने गठबंधन के सहयोगियों का चुनाव करने तक में चूक गए और राजभर, जयंत चौधरी, कृष्णा पटेल जैसे सहयोगियों के दम पर खेलते रहे।
उधर अगर भाजपा की बात करें तो उसके पास मोदी-योगी और शाह के करिश्माई चेहरों के साथ लंबी चौड़ी नेताओं और सहयोगी गठबंधन के सहयोगियों की टीम थी और लम्बे समय से पन्ना बूथ तक कमेटियां, जिनको महज एक काम सौंपा गया था, मतदाताओं को बूथों तक लाना और वोट में परिवर्तित कराना। भाजपा ने अपना दल और निषाद पार्टी जैसे सहयोगियों को 2017 में जीतीं हुईं सीटें बांटने तक में गुरेज नहीं किया। भाजपा ने कानून व्यवस्था और विकास व रोजगार के मुद्दों पर विपक्ष को करारा जवाब दिया। एक ओर जहां विकास दुबे, मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद के खिलाफ भाजपा की आक्रामकता को पार्टी की ओर से सुदृढ़ कानून व्यवस्था का प्रतीक बनाया गया तो योगी को बुलडोजर बाबा का तमगा देकर उन्हें एक अलग और सशक्त छवि से नवाजा गया। यहां तक कि चुनावी सभाओं तक में योगी के बुलडोजर दिखाते वीडियो मिथक बन गए। योगी को एक बाबा जरुर निरुपित किया गया, लेकिन ऐसा बाबा, जो किंवदंतियों, रुढ़ियों और मिथकों को तोड़ने का साहस रखता है। उनके नोएडा के दौरों को भी नाटकीय तौर पर साहसिक कदमों के रुप में पेश किया गया। उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तड़के और डबल इंजन की सरकार के नारे ने जनता को लुभाया है। यह 10 मार्च को मतपेटियों से निकले नतीजों से भी परिलक्षित हुआ है। भाजपा की एक और बड़ी सफलता मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ अंडरस्टैंडिंग रही जिसने दलित वोटों को समाजवादी पार्टी की ओर जाने से रोका। मायावती अपने प्रत्याशियों और कैडर वोट को खुलेआम आमंत्रण देते देखी गई कि समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी नहीं जीतना चाहिए, चाहे भाजपा को ही वोट न करना पड़ें। योगी सरकार द्वारा बांटे गए सस्ते राशन ने निर्धन मतदाताओं को आकर्षित किया। खासकर दलित और मुस्लिम महिला मतदाता इस मामले में मोदी- योगी का गुणगान करते देखीं गई और यह रुझान अंत में मतपेटियों तक भी पहुंचाने में सरकार और संगठन कामयाब रहा।
आश्चर्यजनक यह रहा कि इस बार उप्र में मुकाबला द्विदलीय बनकर रह गया। अब तक उप्र में मुकाबला चतुष्कोणीय होता रहा है जिसे भाजपा ने अपनी रणनीति से समाजवादी पार्टी के साथ आमने सामने की लड़ाई में बदल दिया। राम मंदिर का निर्माण और काशी के संदेशों को भी पार्टी बहुसंख्यक मतदाताओं तक पहुंचाने में कामयाब रही।
बहरहाल, इस बार यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता दिखाई दिया कि बहुसंख्यक मतदाताओं के मन में राष्ट्रवाद और उग्र हिंदुत्व की लालसा बलवती है तो सस्ते घर, सस्ते राशन और एक्सप्रेस वे और डिफेंस कारीडोर जैसे कदमों के सामने विपक्ष के बेरोजगारी, कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान और किसान आंदोलन जैसे मुद्दों की धार भोंथरी होती गई। अंततः यही भाजपा की सत्ता में वापसी का कारण बना।
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