
काशी की आन-बान और शान उस्ताद विस्मिल्ला खान की आज 106 वीं जयंती है । इस मौके पर फातमान स्थित मजार पर शुभचिंतकों सहित परिजनों ने फातिहा पढ़ श्रद्धा के फूल अर्पित किया । उस्ताद को उन्हीं का शहर बेगाना कर दिया है ऐसा इसलिए क्योकि जिस विस्मिल्ला ने ताउम्र लम्बी मेहनत के बाद शहनाई को फर्श से अर्श तक पहुंचाया और जिन्हे भारत रत्न जैसे सम्मान से नवाजा गया। उसी विस्मिला के मजार पर आज न ही बनारस के संगीत घराने से और न ही किसी अधिकारी के दीदार हुए। यही नहीं परिजन पहले ही इस बात की इत्तला सभी को दे रखा था।
उस्ताद – उस्ताद का जन्म पैगंबर खां और मिट्ठन बाई के यहां बिहार के डुमरांव स्थित ठठेरी बाजार में एक किराए के मकान में 21 मार्च 1916 ई. को हुआ था। उनके बचपन का नाम कमरुद्दीन था। वे अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। उनके पैदा होने पर दादा रसूल बख्श ने ‘बिस्मिल्लाह’ कहा, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से’। इसलिए बाद में घर वालों ने उनका यही नाम रख दिया, और आगे चलकर वे ‘बिस्मिल्लाह खां’ के नाम से मशहूर हुए। उनके खानदान के लोग दरबारी राग बजाने में माहिर थे। उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्लाह खां अपने पिता के साथ बनारस आ गए। यहां उन्होंने अपने चाचा अली बख्श ‘विलायती’ से शहनाई बजाना सीखा। उनके उस्ताद चाचा ‘विलायती’ विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करते थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां शिया मुसलमान थे फिर भी वे अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की तरह धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे।
आजादी की तान – 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहर रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश दी थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई की गूंज एक प्रथा बन गई।
फिल्मों में भी शहनाई – बिस्मिल्लाह खां ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार आशुतोष गोवारिकर की हिंदी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की तान छेड़ी थी।
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