
– #रूपेश_पाण्डेय, भारत_कथा_वाचक
राम राज्य त्रेता की शासन पद्धति है। कलियुग में वैसे शासन की बात की जा सकती है उसे पाया नहीं जा सकता। उसको पाने की कुछ सुनिश्चित शर्तें हैं। यदि उसे पाना है या उसकी स्थापना का प्रयास करेंगे तो जो सबसे जरूरी चीज है वह काल का धर्म समझना है। काल के प्रवाह, उसके व्यवहार को समझे बिना कोई भी सोच प्रभावी नहीं हो सकती। कलियुग में राम राज्य की स्थापना के लिए हमें त्रेता के राम राज्य को समझना पड़ेगा और उसकी वर्तमान में पड़ताल करनी पड़ेगी, यह अनिवार्य शर्त है।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में बताया है कि राम राज्य यानि क्या । वे कहते हैं दैहिक-दैविक भौतिक तापा
राम राज्य काहू नहीं व्यापा।
यही राम राज्य है। तो कलियुग में यह कैसे प्राप्त हो ? इसकी तलाश ही हमें राम राज्य के द्वार पर ले जाकर खड़ी कर देगी।
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त्रेता का राम राज्य लंका विजय के पश्चात स्थापित होता है। उसके लिए राम को वनवासी जीवन भी जीना पड़ता है। जरूरत पड़ने पर छल-छद्म का भी सहारा लेना पड़ता है। राम, राम राज्य के नायक हैं लेकिन भरत, लक्ष्मण और शत्रुघन जैसे भाइयों का तप और पुरुषार्थ उनको नायक बनाने के लिए जरूरी था। राम, अवतारी थे। वे चाहते तो अकेले ही सब कर लेते लेकिन उससे समाज को कोई संदेश नहीं मिलता। समाज में कोई व्यवस्था कायम नहीं होती। गुरु वशिष्ठ, अगस्त मुनि आदि गुरुओं और ऋषियों का आशीर्वाद राम के साथ था। हनुमान, जामवंत और अंगद जैसे सहयोगी थे। जिनके मन में कोई शंका नहीं होती थी। विभीषण जैसा भक्त था जिसने राम राज्य की स्थापना के लिए अपने कुल को बलिदान कर दिया। और अंत में यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि राम राज्य की स्थापना के लिए सीताहरण भी जरूरी था।
आज हम जब कलियुग में राम राज्य की बात करते हैं तो सबसे पहले ढूंढने की जरूरत है कि अनीति की वह लंका क्या है उसका शासक वह रावण कौन है जिसको परास्त कर राम राज्य स्थापित होगा। मेरा मानना है कि कलियुग की लंका, ये संसदीय लोकतंत्र है और उसके एक नहीं अनेक रावण हैं। तब रावण के दश शीश प्रतीक थे लेकिन अब दशानन अपने दशों शीशों के साथ मौजूद है। सबसे प्रमुख शीश ब्यूरोक्रेशी है। ये प्रशासक वर्ग, कलियुग की लंका के प्रमुख रावण हैं। न्याय के नाम पर कानून का फैसला देने वाली ज्यूडिसरी,रावण की एक और शीश है। इस लोकतंत्र रूपी लंका के सभी तंत्र एक रावण हैं। यह सवाल क्या जरूरी नहीं है कि इन रावणों के रहते राम राज्य कैसे आएगा ?
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पिछली शताब्दी में अंग्रेजों की दासता से मुक्ति संग्राम में गांधी एक मात्र ऐसे नेता थे जिन्हीने राम राज्य की कल्पना की। गांधी ने उसे हिंद स्वराज नाम दिया। अपनी कालजयी रचना या कहें कि अपने मार्गदर्शक सिद्धांतों के ग्रंथ हिंद स्वराज में गांधी ने संसदीय लोकतंत्र को बांझ और वैश्या कहा। शायद वह इसे रावण ही कहना चाहते हों लेकिन ध्यान आया हो कि रावण में तमाम अनीतियों के बावजूद एक महत्वपूर्ण गुण भी था और वह यह कि वह विद्वान था। लेकिन गांधी इसकी तुलना रावण से भी नहीं कर पाए तो कारण स्पष्ट था इसका निहायत घटिया चरित्र। हिंद स्वराज में ही गांधी इस राक्षसी तंत्र के अवयवों की चर्चा वृहद रूप से करते हैं।
लेकिन ऐसा लगता है कि गांधी काल धर्म की व्यवस्था नहीं समझ पाए। या उन्हें इसे समझने का अवसर नहीं मिला। काल धर्म को बताने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गांधी जिन्हें गुरु मानते थे, वो गुरु गोखले असमय ही चले गए। यह भी कह सकते हैं कि काल के प्रवाह को अगर गांधी ने समझा होता तो सबसे पहले वे भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की तलाश करते। फिर हनुमान को ढूंढते। क्योंकि सबके होने के बावजूद भी लंका विजय संभव नहीं थी अगर हनुमान नहीं होते तो। फिर जामवंत, सुग्रीव और अंगद को अपनी सेना में शामिल करते और अंत में उस विभीषण की खोज करते जो यह बताता कि इस रावण की नाभि में कौन सा अमृत है जो इसे न केवल जिंदा किये हुए है बल्कि वही इसकी मूल ताकत है। संसदीय लोकतंत्र रूपी रावण की नाभि का अमृत है आधुनिकता और विकास। आधुनिकता और विकास रूपी अमृत के लोभ में आज हर मानव रावण बनने को तैयार है।
गांधी को राम की नहीं राम भक्ति की जरूरत थी, वह उन्होंने स्वयं में महसूस किया और राम राज्य की स्थापना के युद्ध में कूद गए लेकिन युद्ध के लिए जरूरी अपनी सहयोगी शक्तियों को साथ नहीं जुटा पाए। उन्हें एक हनुमान मिला था सरदार पटेल के रूप में जो अपने राम (गांधी) की भक्ति में लीन थे। लेकिन उनके आस-पास तमाम ऐसे कलियुगी विभीषण थे जिन्होंने अपने कुल के हित स्वरूप गांधी और राम राज्य को ही दांव पर लगा दिया। मुझे इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है। कुल के अंतिम कुलदीपक अब भी उसी कर्म में लगे हैं। उनकी छद्म धार्मिकता, उनके कालनेमि होने को प्रमाणित करती है।
गांधी ने यह महसूस तो किया कि अंग्रेजी शासन काल में स्वतंत्रता रूपी सीता का हर पल, हर दिन हरण हो रहा है लेकिन वे उस सीता की मुक्ति के लिए तमाम प्रयासों के बावजूद रावण वध नहीं कर पाते। सीता आज भी मुक्ति के लिए तड़प रही है। संसदीय लोकतंत्र रूपी लंका की आधुनिकता रूपी अशोक वाटिका में वह विकास के मार्ग पर भटक रही है।
आज जब कलियुग में राम राज्य की बात करते हैं तो हमें स्वतंत्रता रूपी सीता को संसदीय लोकतंत्र रूपी लंका से मुक्त कराना ही पड़ेगा। इससे कम में कलियुग में राम राज्य स्थापित नहीं होगा।
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