
सनातन संस्कृति के पूज्यचरण सनातन के आचार्य हैं। आचार्य परम्परा में आदि गुरु हरिहर से पदक्रम होकर भगवान आदिशंकराचार्य तक की यात्रा अविराम रही है। भगवान आदि शंकराचार्य से आगे का क्रम अविरल, अविराम गतिमान है। जिसकी छत्र छाया में सनातन की यात्रा चल रही है। इस यात्रा का एक पड़ाव आज पितृपक्ष की प्रतिपदा को शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी के परलोकगमन के रुप में उपस्थित हुआ है।
एक बालक पोथीराम उपाध्याय से स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती बनने तक की यात्रा को एक आलेख में समेटना संभव नहीं है। एक सन्त, एक स्वाधीनता सेनानी, एक आचार्य और सनातन के धर्माचार्य तक के उनके व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं। उनके किसी पक्ष से कुछ असहमति या कुछ अलग पक्ष भी संभव है लेकिन यह सर्वविदित है कि सनातन के एक स्तम्भ आचार्य के रूप में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज का जीवन पथ सनातन संस्कृति के लिए पाथेय दिग्दर्शक के रूप में सदैव उपस्थित रहेगा।
सनातन संस्कृति की रक्षा और इसको संगठित करने की भावना से भगवत्पाद आदिशंकराचार्य ने भारत के चारों दिशाओं में चार धार्मिक राजधानियाँ (गोवर्धन मठ, श्रृंगेरी मठ, द्वारका मठ एवं ज्योतिर्मठ) बनाई। इन चार में से द्वारकामठ के शंकराचार्य थे स्वामी स्वरूपानन्द जी सरस्वती। स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गाँव में ब्राह्मण परिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और माँ श्रीमती गिरिजा देवी के यहाँ हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्मयात्रायें प्रारम्भ कर दी थी। इस दौरान वह काशी पहुँचे और यहाँ उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांगों, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह ‘क्रान्तिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वह करपात्री महाराज के राजनीतिक दल ‘रामराज्य परिषद’ के अध्यक्ष भी थे। 1950 में वे दण्डी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। उन्होंने शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने गये।
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जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी स्वयं को दो मठों (द्वारका एवं ज्योतिर्मठ) काशंकराचार्य कहते रहे हैं। ज्योतिर्मठ की आचार्यपीठ का विवाद न्यायालय में ले कर गए। ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानन्द जी सरस्वती हैं। यह विदित होना चाहिए कि शंकराचार्य का पद बहुत महत्वपूर्ण है। सनातन संस्कृति के हिन्दुओं का मार्गदर्शन एवं भगवत् प्राप्ति के साधन आदि विषयों में हिन्दुओं को आदेश देने के विशेष अधिकार शंकराचार्यों को प्राप्त होते हैं । सभी हिन्दुओं को शंकराचार्यों के आदेशों का पालन करना चाहिये । वर्तमान युग में अंग्रेजों की कूटनीति के कारण धर्म का क्षय, जो कि हमारी शिक्षा पद्धति के दूषित होने एवं गुरुकुल परंपरा के नष्ट होने से हुआ है । हिन्दुओं को संगठित कर पुनः धर्मोत्थान के लिये चारों मठों के शंकराचार्य एवं सभी वैष्णवाचार्य महाभाग सक्रिय हैं ।
स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी सांई बाबा की पूजा करने के विरोध में रहे क्योंकि कुछ हिन्दु दिशाहीन हो कर अज्ञानवश असत् की पूजा करने में लगे हुए हैं। जिससे हिन्दुत्व में विकृति पैदा हो रही है । स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी के अनुसार इस्कॉन भारत में आकर कृष्ण भक्ति की आड़ में धर्म परिवर्तन कर रहा है, ये अंग्रेजों की कूटनीति है कि हिन्दुओं का ज्ञान ले कर हिन्दुओं को ही दीक्षा दे कर अपना शिष्य बना रहे हैं।
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