
पितृ पक्ष एवं अधिमास क्या है इसमें क्या करें क्या न करें
धर्म नगरी / इन्नोवेस्ट डेस्क / 8 sep
प्रो. विनय कुमार पाण्डेय
भारत एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक एवं व्रत पर्व तथा उत्सवों का देश है अतः यहां की अर्थव्यवस्था भी इस पर निर्भर रहती है। यहाँ वर्ष भर पर्व, उत्सव एवं विभिन्न कार्यक्रम मौसम तथा समय के अनुरूप निर्धारित चैत्रादि मासों में आयोजित होते रहते हैं जिससे कि मानव जीवन एवं समाज में निरंतरता और उत्साह बना रहे। यहाँ की संस्कृति में अतीत को स्मरण करते हुए वर्तमान में जीवन यापन कर भविष्य को संरक्षित करने की व्यवस्था अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। यहाँ पर अतीत रूपी पितरों का भी उतना ही महत्व है जितना कि भविष्य रूपी बच्चों का परंतु यदा-कदा कुछ भ्रम की स्थितियां इस निरंतरता में व्यवधान उत्पन्न करते हुए इस शाश्वत विकास में अवरोध उत्पन्न कर देती हैं। इस वर्ष 2020 में भी पितृपक्ष के बाद 30 दिनों का अधिक मास पड़ जाने से कुल 45 दिनों के कृत्य को लेकर जनमानस में कुछ भ्रम की ऐसी ही स्थितियां उत्पन्न हो गई हैं जो कि एक स्वस्थ एवं प्रगतिशील समाज के लिए लाभदायक नहीं है अतः इससे संबंधित वास्तविक स्थिति का विवेचन प्रस्तुत है।
पितृपक्ष
पितृपक्ष एवं अधिक मास को लेकर समाज में अनेक तरह की भ्रांतियाँ व्याप्त है कुछ लोग पितृपक्ष को मरणाशौच की तरह अपवित्र मानते हुए इस काल में देवादि पूजन का एवं अन्यान्य नित्य नैमित्तिक कर्मों का भी त्याग करते हुए मंदिर जाना, घर का नित्य पूजन करना, व्रतोपवास, व्यापार का आरम्भ करना,नया वस्त्र खरीदना एवं धारण करना, आभूषण क्रय, फ्लैट, मकान, टी. वी, फ्रीज, कूलर, ए.सी., नया वाहन और नित्य उपयोग की वस्तुओं को खरीदना और प्रथम बार उपयोग करना भी अशुभ मानते हुए इनका त्याग कर देते हैं, जबकि धर्म शास्त्रों में इसे अत्यंत पुण्यप्रद काल के रूप में प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि –
कन्यस्थार्कान्वित: पक्ष: स: अत्यन्तं पुण्यमुच्यते।
वस्तुत: पितृपक्ष पितरों के पूजन का एक विशेष पक्ष होता है जिसमें नित्य नैमित्तिक अन्य कर्मों के साथ- साथ पितरों के पूजन का विशेष फल होता है। शास्त्रानुसार सनातन धर्म में पितृ तर्पण नित्यकर्म के रूप में प्रतिपादित है जिसे प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन करना चाहिए परंतु प्रतिदिन पितरों हेतु समय नहीं निकाल पाने की स्थिति में केवल इस पितृपक्ष में तर्पणादि करने मात्र से भी पितृगण संतृप्त रहते हैं।
तस्य संवत्सरं यावत् संतृप्ता: पितरो ध्रुवाम्
अतः इस आर्थिक एवं भौतिक युग में पितृ पक्ष का महत्व और भी बढ़ जाता है , क्योंकि शास्त्रानुसार भौतिक सुख संसाधनों एवं वंश की वृद्धि पितृगण के संतृप्त रहने पर ही संभव है क्योंकि जिसके पितृगण अतृप्त रहते हैं उनके घर में वंश की वृद्धि एवं भौतिक समृद्धि नहीं होती जो बाद में पितृ दोष के रूप में कुंडली एवं प्रायोगिक जीवन में भी दृष्टिगत होने लगता है।
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पितृपक्ष की उत्पत्ति
भारतीय काल गणना में वर्ष सौरमान से लिया जाता है अतः संक्रान्तियों के अनुसार काल विभाजन के क्रम में 1 सौर में 360 अंश एवं 360 ही सौर दिन होते हैं जिसमें षडशीतिमुख नाम की चार संक्रांतियां होती है जो तुला राशि की संक्रांति के बाद से 86-86 अंश (सौरदिन) करके कन्या के 14 अंश तक आ जाती हैं और 16 दिन सौर वर्ष में बच जाता है जिसे यज्ञ तुल्य फल देने वाला कहकर पितरों को दे दिया गया है क्रतुभिस्तानि तुल्यानि पितृणां दत्तमक्षयम् अतः इस काल में पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक तर्पण, पिंडदान एवं अन्य दानादि कर्म यज्ञ के समान फलों को देने वाले होते हैं इसीलिए इस पक्ष में पितरों का स्मरण, पूजन अवश्य करना चाहिए इससे मनुष्य पितृ ऋण से मुक्त होकर पुत्र पौत्रादि तथा धन धन्यादि से संपन्न होता है।
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अधिकमास या अधिमाकमास
भारतीय काल गणना पद्धति में अनेक प्रकार के मिश्रित कलमानों से व्यवहार किया जाता है जिसमें वर्ष सौर, मास चान्द्र (चैत्र,वैसाख आदि) तथा दिन सावन(रविवार ,सोमवार आदि) होता है इस प्रक्रिया में चैत्रादि 12 महीनों का नाम दो अमावस्याओं के मध्य पड़ने वाली संक्रान्तियों से ही निर्धारित होता है अतः जिन दो अमावस्याओं के बीच सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है उसे कोई नाम नहीं मिल पाने के कारण लोक व्यवहार में अधिकमास, अधिमास, मलमास, मलिम्लुचमास तथा ‘पुरुषोत्तममास’ आदि नामों से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने जब कुछ अन्य प्रतिबंधों के साथ चैत्र आदि 12 में से किसी महीने में नहीं मरने का ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर पृथ्वी लोक में उपद्रव करते हुए स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। तब भगवान विष्णु ने इसे मारने के लिए स्वयं चैत्रादि 12 महीनों के अतिरिक्त अधिकमास रूप में उत्पत्ति की। परंतु कार्य पूर्ति के बाद जब अधिमास अपने अस्तित्व की भगवान विष्णु से चिंता व्यक्त की तो भगवान विष्णु ने उसे स्वयं अपना नाम देकर पुरुषोत्तममास कहते हुए उसके महत्व को बढ़ा दिया। काल गणना क्रम में यह स्थिति औसतन प्रत्येक तीसरे वर्ष में 32 महीने, 16 दिन और 1 घंटा 36 मिनट के अन्तर से उत्पन्न होती है।
इस वर्ष आश्विन मास मे पितृपक्ष के बाद 18 सितंबर से अधिक मास का आरंभ हो जा रहा है जो 16 अक्टूबर तक है। अतः पितृ पक्ष के 15 दिन तथा अधिकमास के 30 दिनों को मिलाकर इन 45 दिनों में क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए इसको लेकर समाज में भ्रम की स्थितियां उत्पन्न हुई है। जबकि इसके लिए शास्त्रों में स्पष्ट व्यवस्था दी गई है।
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न करे ये कार्य –
अधिमास में फल की प्राप्ति की कामना से किये जाने वाले प्रायः सभी काम जैसे- कुएँ, बावली, तालाब, (बोरिंग) खोदना और उनकी प्रतिष्ठा करना, बाग आदि का आरंभ और प्रतिष्ठा, किसी भी प्रयोजन के व्रतों का आरंभ और उद्यापन, जन्म के 6 महीने बाद होने वाले सभी संस्कार जैसे कर्णवेध, मुण्डन, यज्ञोपवीत, समावर्तन, विवाह, वधुप्रवेश, द्विरागमन, पृथ्वी, तुला आदि के 16 महादान, सोमादि यज्ञ, अष्टका श्राद्ध, गोदान, प्रथम उपाकर्म, वेदारम्भ, नियत काल में बालकों के न किए हुए संस्कार, देवप्रतिष्ठा, प्रथम बार की तीर्थयात्रा एवं देव दर्शन, संन्यास ग्रहण, अग्निपरिग्रह, राज्याभिषेक, प्रथम बार राजा का दर्शन, अभिषेक, प्रथम यात्रा, चातुर्मासीय व्रतों का प्रथमारम्भ आदि अधिमास में वर्जित हैं।
ये कार्य कर सकते है –
अलभ्य योगों के प्रयोग; अनावृष्टि के अवसर पर वर्षा हेतु विहित पुरश्चरण, ग्रहण कालिक स्नान, दान, श्राद्ध, और जपादि, पुत्र जन्म के कृत्य और पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण और अन्नप्राशन संस्कार , नया वस्त्र खरीदना एवं धारण करना, आभूषण क्रय, फ्लैट, मकान, टी. वी, फ्रीज, कूलर, ए.सी., नया वाहन और नित्य उपयोग की वस्तुओं को खरीदना और प्रथम बार उपयोग करना भी शुभ होता है।
इस महीने में निष्काम भाव से ईश्वर के उद्देश्य से जो व्रत आदि किये जाते हैं उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं। इसके विषय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस मास का फलदाता, भोक्ता और अधिष्ठाता सब कुछ मै हूँ। अतः इस महीने के कृत्य का अक्षय फल होता है। इस काल में ब्राह्मण और साधुओं और दीन दुखियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा है। इससे तीर्थस्नानादि के समान फल होता है।
प्रो. विनय कुमार पाण्डेय
अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय