जानिए क्या हैं जीवित्पुत्रिका व महालक्ष्मी व्रत , विधान और मान्यताएं

जानिए क्या हैं जीवित्पुत्रिका व महालक्ष्मी व्रत , विधान और मान्यताएं


माँ लक्ष्मीजी के व्रत-उपवास एवं पूजन से मिलती है सुख-समृद्धि, खुशहाली

      • 10 सितम्बर, गुरुवार को
      • – पुत्र के दीर्घायु व आरोग्य के लिए महिलाएँ रखती हैं जीवित्पुत्रिका व्रत
      • — ज्योतिर्विद् विमल जैन

         

        भगवती श्रीमहालक्ष्मीजी की प्रसन्नता के लिए रखा जाने वाला श्रीमहालक्ष्मी व्रत 10 सितम्बर, गुरुवार को रखा जाएगा। विशिष्ट तिथि पर किए जाने वाले व्रत से मनोकामना की पूर्ति होती है। ज्योतिषविद् विमल जैन ने बताया कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन श्रीमहालक्ष्मी व्रत रखा जाता है। 26 अगस्त, बुधवार से प्रारम्भ महालक्ष्मी व्रत का समापन आज के दिन 10 सितम्बर, गुरुवार को हो जाएगा। पुत्र के आरोग्य व दीर्घायु के लिए महिलाएँ जीवित्पुत्रिका व्रत रखती हैं। यह व्रत आश्विन कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी अष्टमी तिथि के दिन रखा जाता है। शुद्ध आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 9 सितम्बर, बुधवार को अद्र्धरात्रि के पश्चात 2 बजकर 06 मिनट पर लगेगी जो कि अगले दिन 10 सितम्बर, गुरुवार की अद्र्धरात्रि के पश्चात 3 बजकर 35 मिनट तक रहेगी। चन्द्रोदय व्यापिनी अष्टमी तिथि का मान 10 सितम्बर, गुरुवार को होने के फलस्वरूप श्रीमहालक्ष्मी व्रत एवं जीवित्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत इसी दिन रखा जाएगा।

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        व्रत का विधान—

        व्रत के दिन प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। अपने समस्त दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर अपने आराध्य देवी-देवता की पूजा-अर्चना करने के पश्चात् श्रीमहालक्ष्मी जी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। अपनी जीवनचर्या में पूर्ण शुचिता रखते हुए व्रत के प्रारम्भ में अष्टमी तिथि के दिन निराजल रहकर अपनी परम्परा और मान्यता के अनुसार विधि-विधानपूर्वक लक्ष्मीजी की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। दूसरे दिन नवमी तिथि के दिन व्रत का पारण किया जाता है। महालक्ष्मी जी के व्रत के पारण के पश्चात् ब्राह्मण को भोजन भी करवाकर दान-दक्षिणा देना चाहिए।

        आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पुत्र की दिर्घायु व आरोग्य के लिए महिलाएँ जीवित्पुत्रिका व्रत रखकर पूजा-अर्चना करती हैं। इसके साथ ही जीमूतवाहन की भी पूजा-अर्चना करने का नियम है। जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा भी सुनी जाती है। पारिवारिक रीति-रिवाज के अनुसार व्रत के प्रारम्भ में उड़द के साबूत दाने व्रती महिलाएँ निगल कर व्रत प्रारम्भ करती हैं। इसके पश्चात् अन्न व जल कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता। कच्चे सूत के धागे का गण्डा बनाया जाता है, जिसे जिउतिया कहते हैं। इस गण्डे की विधि-विधानपूर्वक पूजा करते हैं। व्रती महिलाएँ जिउतिया का सूत्र पूजनोपरान्त अपने गले में धारण करती हैं। जिउतिया सोने या चाँदी से भी बनवाया जाता है। जिउतिया लाल धागे के सूत्र में पुत्र की संख्या के अनुसार धारण किया जाता है।

        रक्षासूत्र के रूप में पुत्र को भी गले में जिउतिया धारण करवाया जाता है। सोलह दिन से चल रहे व्रत का पारण श्रीलक्ष्मीजी के दर्शन-पूजन के पश्चात् किया जाएगा। जीवित्पुत्रिका का व्रत वे महिलाएँ भी रखती हैं, जिनके पुत्र जीवित नहीं रहते या अल्पायु रहते हों। पुत्र की जीवनरक्षा तथा उत्तम आयु एवं समस्त कल्याण के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत अत्यन्त फलदायी है। श्रद्धा आस्था व भक्तिभाव के साथ किए गए व्रत का फल शीघ्र ही मिलता है तथा श्रीमहालक्ष्मीजी के व्रत से जीवन में धन, ऐश्ïवर्य व वैभव की प्राप्ति के साथ ही सुख-सौभाग्य में अभिवृद्धि होती है।

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