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सावन के आते ही ब्याहता महिलाये अपने पति के घर आने की राह देखने लगती है लेकिन जब पति घर नहीं आता तो वो अपने सहेलिओ संग विरह में गीत गाती है ये ही गीत कजली कही जाती है , कजली लुप्त होने के कगार पर है असल में ये मिर्जापुर अंचल की लोक संगीत है जो आज भी मनाई जाती है एक अन्य धार्मिक मान्यताओ के अनुसार मां विंध्यवासिनी देवी की अनेक नामो में से एक नाम “कजला” भी है भाद्र कृष्ण पक्ष के द्वितीया तिथि को मां का जन्म हुआ था लिहाजा मां के सम्मान में इस मास में गाये जाने वाले गीत को कजरी का नाम दिया गया।
जानिए – कजरी की सम्पूर्ण बातें
कजरी के पूर्व की रात को रतजग्गा के नाम से जाना जाता है । समूहबद्ध महिला देर रात तक कजरी गीतों को स्वर दिया। इस मौके पर जलेबा की खुशबू से वातावरण तर रहा है । दुसरे लोक गीतों की तरह कजली भी आज अपने पहचान को बनाये रखने के लिए जद्दोजहद की जंग लड़ती नजर आ रही है मिर्जापुर के ग्रामीण अंचलो के साथ पडोसी जिला बनारस ,भदोही और सोनभद्र आदि में लोग इस लोक पर्व को भूलते जा रहे है । कजली की शुरुआत मिर्जापुर को जाता है मान्यताओ के अनुसार प्राचीन काल में राजा दानव के बेटी कजली का शादी तय होने के बाद बारात आनी थी लेकिन तभी पड़ोसी राजा ने आक्रमण कर कजली के भावी पति सहित परिजन को मार डाला , इधर कजली अपने पिया के आने की आस में महीनो बिता दी सावन की बरसात ने कजरी को कुछ यु झकझोरा की वो अपनी पीड़ा छिपा न सकी और विरह की गीत गाने लगी …..कालांतर में यही विरह के गीत को कजरी का नाम मिला ।
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