
।। पितृपक्ष-श्राद्धकर्म ।।
जानिये , किन किन को और कैसे कैसे देते हैं जल …
लेखक – पं चक्रपाणि भट्ट
भाद्रपद शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि दो सितम्बर को है,इस दिन अगस्त्य मुनि का तर्पण करने का शास्त्रीय विधान है। इस वर्ष शुद्ध आश्विन माह का कृष्णपक्ष अर्थात् पितृपक्ष ३ सितम्बर गुरुवार से प्रारम्भ होकर गुरुवार 17 सितम्बर तक रहेगा। पितृपक्ष एक महत्वपूर्ण पक्ष है।भारतीय धर्मशास्त्र एवं कर्मकाण्ड के अनुसार पितर देव स्वरूप होते हैं। इस पक्ष में पितरों के निमित्त दान,तर्पण आदि श्राद्ध के रूप में श्रद्धापूर्वक अवश्य करना चाहिए। पितृपक्ष में किया गया श्राद्ध-कर्म सांसारिक जीवन को सुखमय बनाते हुए वंश की वृद्धि भी करता है।इतना ही नहीं श्राद्धकर्म-प्रकाश में कहा गया है कि पितृपक्ष में किया गया श्राद्ध कर्म गया-श्राद्ध के फल को प्रदान करता है-
“पितृपक्षे पितर श्राद्धम कृतम येन स गया श्राद्धकृत भवेत ।” श्राद्ध न करने से पितृदोष लगता है। श्राद्धकर्म-शास्त्र में उल्लिखित है-“श्राद्धम न कुरूते मोहात तस्य रक्तम पिबन्ति ते।”अर्थात् मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बंधियों का रक्त-पान करते हैं। उपनिषद में भी श्राद्धकर्म के महत्व पर प्रमाण मिलता है- “देवपितृकार्याभ्याम न प्रमदितव्यम …।” अर्थात् देवता एवं पितरों के कार्यों में प्रमाद( आलस्य) मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिए।
ऐसे करिये तर्पण –
पितृपक्ष में पितृतर्पणएवं श्राद्ध आदि करने का विधान यह है कि सर्वप्रथम हाथ में कुशा,जौ,काला तिल, अक्षत एवं जल लेकर संकल्प करें-“ॐ अद्य श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त सर्व सांसारिक सुख-समृद्धि प्राप्ति च वंश-वृद्धि हेतव देवऋषिमनुष्यपितृतर्पणम च अहं करिष्ये।।” इसके बाद पितरों का आवाहन इस मन्त्र से करना चाहिए- “ब्रह्मादय:सुरा:सर्वे ऋषय:सनकादय:। आगच्छ्न्तु महाभाग ब्रह्मांड उदर वर्तिन:।। तत्पश्चात् इस मन्त्र से पितरों को तीन अंजलि जल अवश्य दे- “ॐआगच्छ्न्तु मे पितर इमम गृहणम जलांजलिम।।” अथवा “मम(अमुक) गोत्र अस्मत पिता-उनका नाम- वसुस्वरूप तृप्यताम इदम तिलोदकम तस्मै स्वधा नम: ।।” पितर तर्पण के बाद गाय और बैल को हरा साग खिलाना चाहिए।तत्पश्चात् पितरों की इस मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिए- “ॐ नमो व:पितरो रसाय नमो व:पितर:शोषाय नमो व:पितरो जीवाय नमो व:पितर:स्वधायै नमो व:पितरो घोराय नमो व:पितरो मन्यवे नमो व:पितर:पितरो नमो वो गृहाण मम पूजा पितरो दत्त सतो व:सर्व पितरो नमो नम:।” पितृ तर्पण के बाद सूर्यदेव को साष्टांग प्रणाम करके उन्हें अर्घ्य देना चाहिए।तत्पश्चात् भगवान वासुदेव स्वरूप पितरों को स्वयं के द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म इस मन्त्र से अर्पित करें- “ अनेन यथाशक्ति कृतेन देवऋषिमनुष्यपितृतरपण आख्य कर्म भगवान पितृस्वरूपी जनार्दन वासुदेव प्रियताम नमम।ॐ ततसद ब्रह्मा सह सर्व पितृदेव इदम श्राद्धकर्म अर्पणमस्तु।।” ॐविष्णवे नम:ॐविष्णवे नम: ॐविष्णवे नम:।। इसे तीन बार कहकर तर्पण कर्म की पूर्ति करना चाहिए।
ये है तर्पण की विधान –
तर्पण – पिता,माता ,दादा (पितामह),परदादा (प्रपितामह), दादी, परदादी, चाचा, ताऊ, भाई-बहन, बहनोई, मौसा-मौसी, नाना (मातामह),नानी (मातामही), मामा-मामी, गुरु, गुरुमाता सभी का तर्पण करने का विधान है सर्वप्रथम पूरब दिशा की ओर मुँह करकेकुशा का मोटक बनाकर चावल (अक्षत) से देव-तर्पण करना चाहिए। देव-तर्पण के समय यज्ञोपवीत सब्य अर्थात् बाएँ कन्धे पर ही होता है। देव-तर्पण के बाद उत्तराभिमुख होकर “ कण्ठम भूत्वा ” जनेऊ गले में माला की तरह करके कुश के साथ जल में जौ डालकर ऋषि – मनुष्य तर्पण करना चाहिए। अन्त में अपसव्य ( जनेऊ दाहिने कन्धे पर करके ) अवस्था में दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अपना बायाँ पैर मोड़कर कुश-मोटक के साथ जल में काला तिल डालकर पितर तर्पण करें । पुरुष-पक्ष के लिए “तस्मै स्वधा” तथा स्त्रियों के लिए “ तस्यै स्वधा ” का उच्चारण करना चाहिए।इस प्रकार देव-ऋषि-पितर-तर्पण करने के बाद कुल (परिवार), समाज में भूले-भटके या जिनके वंश में कोई न हो तो ऐसी आत्मा के लिए भी तर्पण का विधान बताते हुए शास्त्र में उल्लिखित है कि अपने कन्धे पर रखे हुए गमछे के कोने में काला तिल रखकर उसे जल में भिंगोकर अपने बाईं तरफ़ निचोड़ देना चाहिए।इस प्रक्रिया का मन्त्र इस प्रकार है-“ये के चास्मत्कूले कुले जाता ,अपुत्रा गोत्रिणो मृता । ते तृप्यन्तु मया दत्तम वस्त्र निष्पीडनोदकम ।। तत्पश्चात् “भीष्म:शान्तनवो वीर:…..” इस मन्त्र से आदि पितर भीष्मपितामह को जल देना चाहिए। इस तरह से विधि पूर्वक तर्पण करने का शास्त्रीय विधान है।देव-ऋषि-पितर तर्पण में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों के लिए गीताप्रेस की पुस्तक नित्य-कर्म विधि का प्रयोग उत्तम होगा।