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इन्हें भी जानिये
आखिर क्यों और कहाँ हिन्दू दफनाते है अपने प्रियजन का शव
विशेष / इन्नोवेस्ट डेस्क / 14 oct
भारतीयों ने शवो को जलाना 1600 ईसापूर्व के करीब शुरू हुआ ,तो उससे पूर्व लोग क्या करते थे शवो के साथ .. इस सवाल का जवाब शायद ही मिलेगा लेकिन सिंधु सरस्वती के लोग अपने शव दफनाते थे। उत्तरप्रदेश में मेरठ और बागपत जिले में कई कब्रे मिली है पर वे उत्तर हड़प्पा काल के है ,कुछ विद्वान मानते थे की हड़प्पा के लोग दफनाते थे बजाए जलाने के ,वे असल में शवो को नगरो के पास नहीं दफनाते थे बल्कि दूर कब्रिस्तानो में दफनाते थे और बागपत में मिले कब्र असल में कब्रिस्तान थे सिंधु सरस्वती सभ्यता के ।
आश्चर्य संग दुःख की बात है कि आज भी पाकिस्तान में 80 प्रतिशत हिंदू शवों को दफ़नाते है । वे उनका दाह संस्कार नहीं करते हैं। कराची में एक 100 साल से भी ज्यादा पुराना 22 एकड़ में फैला हिंदुओं का श्मशान घाट है। जहाँ हिंदू शवों को दफ़नातें हैं लेकिन शवों को दफनाने का तरीका मुसलमानों से अलग है । पहले वो शव का पैर या हाथ का थोड़ा सा हिस्सा जलाते है और फिर शव को कमल की पोजीशन में बिठा कर दफ़नाते हैं।गड्ढे का आकार भी आयताकार न हो कर गोल होता है।और कब्र भी ऊपर से शंकु के आकार की होती है।
ये है दफनाने वजह
पाकिस्तान में करीब 7 मिलियन हिन्दू रहते हैं (ये संख्या भी काफ़ी विवादित है पाकिस्तान हिंदू काउन्सिल का दावा है ये संख्या 8 मिलीयन है और 1998 की जनगणना के अनुसार 2.4 मिलीयन है। ) उनमें से ज्यादातर सिंध(ये पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा प्रांत है और इसकी सीमा गुजरात और राजस्थान से मिलती है) के दक्षिण भाग में रहते हैं।ये थार रेगिस्तान का क्षेत्र है।साल 1899 में यहाँ भयंकर सूखा पड़ा था और पेट भरने तक के लाले पड़ गए थे। तबसे वहाँ हिंदुओं ने शवों को दफनाना शुरू कर दिया और ये प्रथा आज तक जारी है।
गरीबी भी है वजह
पाकिस्तान में ज्यादातर हिंदू दलित समुदाय से हैं जो काफी गरीब हैं।दाह संस्कार में हजारो का ख़र्चा आ जाता है जो वे वहन नहीं कर सकतेऔर ये तो तब है जब श्मशान घाट घर के नजदीक है।अगर दूर है या दूसरे शहर में है तो उसका खर्चा अलग से । गरीबी इस कदर है कि ज्यादातर हिंदुओं को ना चाहते हुए भी शवों को आसपास की कब्रगाह में दफनाना पड़ता है।बन्नु, हंगू, डेरा इस्माइल खान और मलकन्द में काफी हिन्दू ये ही कर रहे है।अपने आप को संतुष्ट करने के लिए एक सिक्के को जलाकर शव की हथेली पर निशान बना देते हैं।
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हिंदू श्मशान घाटों की कमी
पाकिस्तान में हिंदुओं के लिए श्मशान घाटों की संख्या बहुत कम है।अगर हम कराची जैसे बड़े शहर की बात करे तो वहाँ 250000 हिंदुओं के लिए सिर्फ़ एक श्मशान घाट है वो भी आज़ादी से पहले का बना हुआ। लाहौर में देश की आज़ादी से पहले 12 श्मशान घाट थे अब वहाँ एक भी नहीं है।1947 में क़रीब 1200 हिंदू परिवार वहाँ रहते थे ।धीरे धीरे सब दूसरी जगह चले गए और अब सिर्फ़ 6 परिवार रहते हैं।
ये हालत हैं श्मशान की
इस्लामाबाद के बात करे तो वहाँ भी कोई शमशान घाट नहीं है। वहाँ क़रीब 158 हिंदू परिवार रहते हैं लेकिन उनको अंतिम संस्कार के लिए सिंध जाना पड़ता है। ख़ैबर्पख्तूनख्वा में भी ठीक ठाक संख्या में हिन्दू है लेकिन वहाँ भी श्मशान घाट ना के बराबर है।कोहाट में एक है। मरदान और बुनेर में एक एक श्मशान घाट है।एक श्मशान घाट आटोक नदी (ये सिंधु नदी की सहायक नदी है) के पास है लेकिन वहाँ तक पहुँचने की हिम्मत बहुत कम लोग ही कर पाते हैं। पेशावर से आटोक नदी तक की यात्रा पर 15000 रुपये का खर्च आता है और दाह संस्कार का पूरा खर्चा 40000 के आसपास आता है।और ज्यादातर हिन्दू तो ग़रीबी की रेखा से नीचे रहते हैं।
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अस्थि कलशों की बढ़ती संख्या
जो हिन्दू थोड़ी अच्छी आर्थिक स्थिति में है और शवों का दाहसंस्कार करते हैं उनको भी अस्थियां विसर्जित करने में दिक्कत आती है।लिहाजा रखे हुए अस्थि कलशों की संख्या बढ़ती जा रही है। वैसे तो काफी हिन्दू सिंधु नदी में ही अस्थियों का विसर्जन कर देते हैं लेकिन जो हिंदू चाहते है कि गंगा नदी में अस्थियां विसर्जित होनी चाहिए उनको काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।अस्थियां विसर्जन के लिए हमेशा से ही भारत का वीजा मिलना मुश्किल होता था और अब तो जिस तरह के संबंध भारत और पाकिस्तान के बीच है उसको देखते हुए हिंदुओं के लिए वीजा मिलना लगभग नामुमकिन हो गया है।
नेतागिरी भी एक कारण
यहाँ अगर हिंदुओ को किसी तरह श्मशान घाट बनाने के लिए जमीन आबंटित भी हो जाती है तो स्थानीय निवासी उसका विरोध करने लगते है तर्क वातावरण खराब करने का होता है और दुर्गन्ध की होती है ऐसा वो इसलिए करते हैं क्योंकि यहाँ के बहुसंख्यक समुदाय के कट्टर लोग इसका विरोध करने लगते है और हिन्दुओं की नुमायंदगी करने वाले भी दबाव में आ जाते हैं।