अरसद आलम की नजर – बनारस में रोज लगती है इंसानों की मंडी
इन्नोवेस्ट न्यूज़ / 28 jan
सरकारी योजनाओं से वंचित मजदूरों का हाल-बेहाल, रोज होती है गरीब के पसीने की नीलामी
– अरशद आलम
‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम लगी है…’ सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की यह पंक्तियां काफी हैं रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे लोगों का दर्द बयां करने के लिए। कुछ ऐसा ही दर्द है बनारस के कुछ इलाकों का, यहां इंसानों की मंडी लगती है।
आपको यह शीर्षक पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा, लेकिन यह सच है कि वाराणसी में कई जगह इंसानों की मंडी लगती हैं। बेरोजगारी से पस्त पुरुष एवं महिलाएं एवं दिनभर के काम के लिए खुद की बोली लगवाते हैं। इन इलाकों में आप भले ही अपने काम से गए हों, सड़क किनारे एक पल ठहर भी जाइए तो आधा दर्जन लोग घेर लेंगे, ‘मजदूर चाहीं का भइया…’ पूछते हुए। इसे जिले की बदकिस्मती कहें या कुछ और! सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विशेष पैकेज और एक सौ दिन के काम की गारंटी देने वाली मनरेगा योजना भी यहां नाकाम साबित हो रही है।
प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने के बाद भी लोगों को पर्याप्त रोजगार उपलब्ध नहीं है, रोजगार की तलाश में आसपास के सैकड़ों गांवो के लोग शहर का रूख करते हैं। सुबह जल्दी आते है और शाम को मजदूरी से छूटने के बाद रोजमर्रा का जरूरी सामान खरीदकर घर लौट जाते हैं। इनकी मजबूरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चाहे सर्दी, गर्मी या बारिश हो, शहर के प्रत्येक चौराहों पर ऐसे लोग सुबह से ही सेठ या ठेकेदारों के आने का इंतजार करते रहते हैं। शहर के चेतगंज, हुकुलगंज, औरंगाबाद, कोतवाली, गुरुधाम आदि कई स्थानों पर सुबह बड़ी संख्या में मजदूरों की भीड़ दिखाई देती हैं। यहां आने वाले श्रमिक अपने आपको दो भागों में बांट लेते हैं। पहले में पुरुष तथ दूसरे में महिलाओं को रखते है। इन्हें मजदूरी भी अलग-अलग मिलती है। पुरुषों को दिनभर की मजदूरी 5 सौ रुपए मिलती है, जबकि महिला को 4 सौ रुपए के आसपास मिलती है। पुरुष एवं महिलाएं बराबरी का काम करते हैं। फिर भी महिलाओं को कम मजदूरी मिलती हैं। कई महिलाएं तो अपने बच्चों को भी साथ लेकर आती है।
योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं
शहर में आने वाले कई मजदूरों को तो सरकार की ओर से विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ के बारे में जानकारी ही नहीं है। जिन्हें जानकारी है उन्हें इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। श्रमिकों ने बताया कि राशन कार्ड, आधार कार्ड बनवाने में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। इसी कारण गरीब इन सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। कई परिवार ऐसे है जिनके घर में कमाने वाला कोई नहीं है। कई महिलाएं घर में छोटे-छोटे बच्चों को पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर काम की तलाश में शहर आती हैं। घर में न तो गैस है और ना ही खाने को पर्याप्त राशन। मनरेगा का जॉब कार्ड तो है, पर काफी दिन बाद काम मिलता है। काम करने के बाद भी समय पर भुगतान नहीं मिलता। मजदूरी का भुगतान शाम होते ही मिल जाता है।
ठेकेदार करते हैं शोषण
कुछ मजदूरों के लिए ठेकेदार तय होते है जो उनके साथ काम पर चले जाते है, लेकिन उन ठेकेदारों के काम नहीं होने पर कभी-कभी अन्य ठेकेदारों के पास या घरों में छोटे-मोटे काम के लिए भी जाना पड़ता हैं। ठेकेदारों के साथ काम करने में फायदा भी है और नुकसान भी। कुछ मजदूर बताते हैं कि फायदा यही है कि काम उन्हें खोजना नहीं पड़ता, काम ठेकेदार ही लेकर आता है। मगर बदले में मजदूरी का कुछ हिस्सा ठेकेदार ही रख लेता है। कई बार ठेकेदार मजदूरों का कुछ हिस्सा दबा लेते हैं। दिहाड़ी पर काम करने वाले यह बेचारे रोज की कमाई में दिगाम लगाएं या ठेकेदार के पीछे तगादा करते फिरें। ऐसे में कई बार उनकी मेहनत की यह कमाई भी डूब जाती है।
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं…
खलील धनतेजवी की यह गजल खेती-किसानी से मुंह मोड़कर शहरों का रुख करने वालों की दुखती रग पर हाथ रखती है। मगर इस पड़ताल की भी जरूरत है कि गांव का आदमी यूं अपने खेत छोड़कर शहरों की तरफ भागता क्यों है। फाइलों में दौड़ती योजनाएं, मौसम की मार, कम होती काश्तकारी और हाकिमों के थोथे वादे कुल मिलाकर ऐसा माहौल बना देते हैं कि खून-पसीना लगाकर अपनी फसलों को मरता देखने के बाद किसान यही सोचता है कि इससे बेहतर दिहाड़ी ही कर लेते हैं। कम से कम बच्चों को रोज भूखे पेट सोते तो नहीं देखना होगा। मगर दिहाड़ी भी मृगमरिचिका जैसी ही है, मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है।
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