।। जानिये क्या है #गुरू_पूर्णिमा_ पर्व ।।
-innovest
गुरू पूर्णिमा भगवानवेदव्यास जी (विष्णु अंशावतार), जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, की आज के दिन पूजा होती है। हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यासजी ही हैं। विश्व के सुप्रसिद्ध वेदान्त ग्रन्थ #ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरम्भ किया। तब देवताओं ने वेद व्यास जी का पूजन किया और तभी से व्यास पूर्णिमा मनाई जा रही है। अतः वे हमारे चीरंजीवी गुरु हैं । इसीलिए गुरु पूर्णिमा को “#व्यास_पूर्णिमा” भी कहा जाता है। उनकी स्मृति को ताजा रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यासजी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए।
#पूजा_विधि
घर में ही किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर भगवान वेदव्यास जी का चावल की ढेरी पर /चित्र पर व्यासपीठ बनाकर पूजा करें
इसके लिए यह ‘#गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये’ संकल्प करें।
फिर–
#नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
#नारायणाखिलगुरो: भगवन्नमस्ते
#श्रीनारायण समारम्भां व्यास शङ्कर मध्यमाम्।अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे गुरु परम्पराम्॥
अब मन में ब्रह्माजी, व्यासजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा, हवन आदि करे के गुरु का ध्यान करना चाहिए। इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए क्योंकि गुरु का आशीर्वाद ही विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। अपने #गुरुओं का स्मरण करें, उनसे उनके स्थान पर जाकर मिलें। अपने गुरुओं को विशेष होने का एहसास दिलाते हुए उनके समक्ष सम्मान का भाव प्रकट करें और उनसे आर्शीवाद ले।
कुछ #महत्वपूर्ण श्लोक–
#गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अर्थ- गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है और गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है। हम उन सद्गुरु को प्रणाम करते हैं ।
#नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
अर्थ- गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए। गुरु के आते हुए दिखाई देने पर भी अपनी मनमानी से नहीं बैठे रहना चाहिए। अर्थात गुरू का आदर करना चाहिए।
#शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
अर्थ- शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम (काबू) में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख (सामने) देखना चाहिए।
#गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
अर्थ- ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का निरोध (ज्ञान का प्रकाश देकर अंधकार को रोकना) करता है, वही वास्तव में गुरू कहलाता है।
#प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
अर्थ- प्रेरणा देने वाले, सूचना देने वाले, सच बताने वाले, रास्ता दिखाने वाले, शिक्षा देने वाले और बोध कराने वाले ये सभी गुरु के समान है ।
#किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
अर्थ- बहुत कहने से क्या होगा? करोडों शास्त्रों से भी क्या मिलेगा? चित्त (मन) की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है।
#विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् ।शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
अर्थ- विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व और प्रसन्नता ये सात शिक्षक के गुण होते हैं।
#विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम् ।ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः ॥
अर्थ- विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है और विरक्ति का फल आश्रव निरोध है।
#सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः ।अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥
अर्थ- अभिलाषा रखने वाले, सब भोग करने वाले, संग्रह करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करने वाले और मिथ्या (झूठा) उपदेश देने वाले गुरु नहीं होते हैं।
#योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा। शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥
अर्थ- योगियों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समझा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर में समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं ।
#दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥
अर्थ- तीनों लोक जैसे स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देने वाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती। गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है।इसका कारण है कि पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है पर स्वयं जैसा नहीं बनाता! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इसलिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहीं है, गुरु तो अलौकिक है।
#पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः ।कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥
अर्थ- जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी (लापरवाह) रहे, वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा, घर में अनाज होते हुए भी भूखा और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है।